Wednesday, August 20, 2008
जो भी मिला अधूरा मिला
खुशियाँ ही मिली न पूरी न गम ही पूरा मिला |
जब भी मिला जो भी मिला अधूरा ही मिला ||
लोंगो ने सींच कर पानी से गुलों को बना लिया गुलशन |
हमने खून और पसीने भी बहाया तो कोई गुल न खिला ||
देकर धोका लोग ये कैसे भरोसा बड़ा लेते हैं |
करके हजारो बफाएं, हमें कभी इक बफा का सिला न मिला ||
अब तो रोती है इक आँख और दूसरी हंसती है |
अपनी मुलाकातों का ये क्या हो गया है सिलसिला ||
जो ख़ुद मैं भरी आग है , क्या कम जलता हूँ|
ओ दूर से आती याद अब और न जला ||
मोसमे पतझड़ है कि हूँ सूखा हुआ सा |
बस अब टूट के गिर जाऊंगा जो और हिला ||
जो तेरी मर्जी ले तू भी करले पूरी |
न शिकायत करेगे हम किसी से , न ही होगी हमें तुझसे कोई गिला||
Monday, August 18, 2008
क्या टूटा है अन्दर-अन्दर
तन्हा-तन्हा रोने वालो, कौन तुम्हें याद आया है
चुपके-चुपके सुलग रहे थे, याद में उनकी दीवाने
इक तारे ने टूट के यारो क्या उनको समझाया है
रंग-बिरंगी महफ़िल में तुम क्यों इतने चुप-चुप हो
भूल भी जाओ पागल लोगो, क्या खोया क्या पाया है
शेर कहां हैं ख़ून है दिल का, जो लफ़्ज़ों में बिखरा है
दिल के ज़ख़्म दिखा कर हमने महफ़िल को गरमाया है
अब शहज़ाद ये झूठ न बोलो, वो इतना बेदर्द नहीं
अपनी चाहत को भी परखो, गर इल्ज़ाम लगाया है
Monday, August 11, 2008
भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा
फिर याद बहुत आयेगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा
आँसू को कभी ओस का क़तरा न समझना
ऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगा
इस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखें
बाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगा
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा
Sunday, August 10, 2008
कविता
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
निकल कर नैनों से से चुपचाप बही होगी कविता अनजान
("सुमित्रा नंदन पन्त" )
जो बीत गई सो बात गेइ
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन् को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूते
जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गेइ
जीवन मैं वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाई कितनी बल्ल्रियां
जो मुरझाई वोह फ़िर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन मैं मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय के आँगन को देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिटटी मैं मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालो पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
Thursday, August 7, 2008
"आदर्श प्रेम"
आयिए मेरे अंदर कविता की प्रति रुजान पैदा करने वाले इस महान रचना कार की इस अदभुद क्रति की पंक्ति को पड़ते है , किसी भी रूप मैं प्रेम का आदर्श है ये .........
"आदर्श प्रेम"
प्यार किसी को करना लेकिन
कहकर उसे बताना कया |
अपने को अपर्ण करना पर
और को अपनाना क्या |
गुण का ग्राहक बनना लेकिन
गाकर उसे सुनाना क्या |
मन के कल्पित भावों से
औरों को भ्रम में लाना क्या |
ले लेना सुगन्ध सुमनों की
तोड़ उन्हें मुरझाना क्या |
प्रेम हार पहनाना लेकिन
प्रेम पाश फैलाना क्या |
त्याग अंक में पले प्रेम शिशु
उनमें स्वार्थ बताना क्या |
देकर ह्रदय ह्रदय पाने की
आशा व्यर्थ लगाना क्या |
Wednesday, August 6, 2008
Aakankshaआकांक्षा
मन के किसी कोने मैं ,पलकों पे रहती है ,
पर मुश्किल से होटों पे आती है .आकांक्षा
कभी झूटी सी कभी अधूरी होती है ,
जब भी सच्ची ,पूरी होती है आकांक्षा
कभी निर्मल , छलि कभी ,कोमल कभी ,
भोली कभी होती है आकांक्षा
कभी स्वार्थ है ,कभी है इच्छा ,कभी विव्बस्ता ,
कभी स्वेच्छा होती है आकांक्षा
कभी बूँद है , कभी है सागर ,
कभी कहीं चुप कहीं ऊजागर होती आकांक्षा
नही कोई प्रवीण जो इनको रोक सके ,
अंत हीन होती है ,ऐसी होती है
*****************ऐसी होती है आकांक्षा **************************