क्या समां छा रहा है की दिल मेरा मुझपे आ रहा है |
क्या बात हुई की ख़ुद ही मैं गुनगुना रहा है ||
आइना मुझसे मेरी पूरानी सी सूरत मांगता है /
जवान जिंदादिल मुझसे मेरी पुरनी मूरत मांगता है //
अपने आँचल से उजाला ढक लेती है, चांदनी रात |
कि कपड़े बदलने से नही बदलते हालात //
बदलते मौसम मैं तन्हाई की शाम कहाँ बदलती है |
ये हिज्र शाम रोज़ गमेशब् मैं ढलती है ||
10 comments:
सुन्दर रचना। बधाई
lajawab hai
बेहद खुब्सूरत ......वाह क्या बात है .....बधाई
अपने आँचल से ढक लेती है, चांदनी रात |
की कपड़े बदलने से नही बदलते हालात //
अच्छी पंक्तियाँ हैं। मुझे लगता है "की" के बदले "कि" होना चाहिए। हो सके तो देख लीजियेगा।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
श्यामल सुमन ji sujhab k liye dhnyanbaad
bahut khoob...badhai...
बदलते मौसम मैं तन्हाई की शाम कहाँ बदलती है |
ये हिज्र शाम रोज़ गमेशब् मैं ढलती है ||
Bahut khoob ....!!
सुन्दर सृजन
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गुलाबी कोंपलें · चाँद, बादल और शाम
सुंदर विचार, सुंदर अभिव्यक्ति।
{ Treasurer-S, T }
bas u hi aapke blog tak pahuch gai...rachna to sunder hai saath hi ek freshness hai blog par .....congrats u
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