Sunday, July 26, 2009

फ़िर क्यूं दिल घबराता है


सपने कांच टुकडों से पलकों को घायल करते हैं
सुखी आँखों मैं फ़िर आंसूं बनकर क्या बहता है //

रोती हैं आँख या ये दिल रोता है
कैसा रिश्ता ये दिल का पलकों से होता है //

कोन से झरने का पानी ये मन की प्यास बुझाता है /
चोट कही न आए नज़र फ़िर कोन ये दर्द जगाता है //

है नादाँ , हटी ये बात किसी की न माने /
फ़िर भूल के सबकुछ खुश हो जाए कोन इसे समझाता है / /

पा लेता है सबकुछ जो चाहे वो कर के माने /
मिल जाता है सबकुछ , तो फ़िर क्यूं दिल घबराता है //

खा लेता है कस्में फ़िर तोड़ उन्हें वो जाता है /
मेरी बात सही कहता फ़िर क्यूं पीछे पछताता है //

साथ चले दुनिया सारी और भीड़ ही भीड़ नज़र आए /
क्यूं डरता है कभी- कभी , फ़िर ये किस से घबराता है //

5 comments:

Udan Tashtari said...

खा लेता है कस्में फ़िर तोड़ उन्हें वो जाता है /
मेरी बात सही कहता फ़िर क्यूं पीछे पछताता है //

-बेहतरीन.

ओम आर्य said...

रोती हैं आँख या ये दिल रोता है
कैसा रिश्ता ये दिल का पलकों से होता है //
dil ke bahut hi krib hai ye panktiya

Unknown said...

waah
waah !
atyant anupam kaviuta

निर्मला कपिला said...

खा लेता है कस्में फ़िर तोड़ उन्हें वो जाता है /
मेरी बात सही कहता फ़िर क्यूं पीछे पछताता है //
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है बधाई

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर भाव!

रक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
विश्व-भ्रातृत्व विजयी हो!

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