Saturday, July 24, 2010

मैं और तुम

मन के दरिया मैं मासूम सी लहर उठी है |

पतझड़ मैं उड़ते पत्तों सी तुम यादों के आंगन को भर जाती हो ||

मैं कलियों को चूमता हूँ तुम्हे सोचकर ,और

तुम मुझे सोचकर बालों मैं फूलों को सजाती हो |


मुझे आसमान पे बस एक चांदनी नज़र आती है

तुम चाँद के दाग पर बस नजरें टिकती हो||


मैं पुकारता हूँ की सारा जहाँ सुन सके |

तुम कानों मैं हल्के से बुदबुदाती हो ||


मैं नुमाइश करता हूँ पागलपन की हद तक

और तुम चुप रहती हो छुपाती हो ||


मैं सब कहता हूँ पर जता नहीं पता |

और तुम कुछ नहीं कहती फिर सब जताती हो ||


कोन हो तुम , कोई तुम्हारा नाम तो पूछे |

क्यों किसी अनजान को इतना सताती हो ||



4 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

खूबसूरत रचना...

ABHISHEK SHARMA said...

very nice keep it up....

ABHISHEK SHARMA said...
This comment has been removed by the author.
ABHISHEK SHARMA said...

कारवाँ गुज़र गया

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,
और हम झुकेझुके,
मोड़ पर रुकेरुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,
और हम लुटेलुटे,
वक्त से पिटेपिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,
और हम डरेडरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयननयन,
पर तभी ज़हर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पुँछ गया सिंदूर तारतार हुई चूनरी,
और हम अजानसे,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

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