Tuesday, February 10, 2009
फ़िर वही पुरानी बात चली
ढली शुहानी शाम कहीं तो
वही पुरनी बात चली ||
थी दूर गगन के आंचल मैं
वो चाँद रात के साथ पली ||
सुबह ओस की बूंदों के संग
मुझे कली के पास मिली ||
ले हाथों मैं हाथ मेरा वो
कुछ पल मेरे साथ चली ||
फ़िर गुमसुम -गुमसुम ,गुपचुप -गुपचुप
खामोशी से बात चली ||
बात बढ़ी , बढ़ी धड़कन
धड़कन धड़कन के साथ चली ||
फ़िर छोड़ मुझे वो फूल कली
पुरे कर अपने अरमान चली ||
रोक ना पाया मैं उसको
वो किन अपनों के साथ चली ||
फ़िर यादों की पुरवाई चली
वो साल चली दर साल चली ||
अब ढली सुहानी शाम कही तो
वही पुरानी बात चली..||
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अपनी कलम से
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